Polonnaruwa History in Hindi पोलोनरुवा का इतिहास
पोलोनरुवा श्रीलंका की दूसरी प्राचीन राजधानी रही है। इसकी स्थापना सन् 1070 में राजा विजयबाहु ने की थी। राजा पराक्रमबाहु ने यहाँ अपना शासन इतनी अच्छे तरीके से चलाया था कि इस नगर के विकास मे इसका असर आसानी से देखा जा सकता है। यही कारण है कि 12वीं शताब्दी मे पोलोनरुवा ने दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति की थी
राजा ने नगर का कैसे विकास किया : नगर मे जो इन्होंने इमारतें बनवाई थी उनमें सबसे प्रसिद्ध, पत्थर की आदमकद प्रतिमा जहां उन्हें हल पकड़े दिखाया गया है। इमारत की तरह ही पोलोनरुवा नगर के समीप स्थित विशाल मानवनिर्मित तालाब जिसे पराक्रम समुद्र कहा जाता है। तालाब के बीचोंबीच राजा का ग्रीष्म ऋतू अवकाश महल स्थापित किया गया था। इस महल में प्रवेश हेतु तालाब के एक छोर पर विशेष प्रवेशद्वार बनाया गया था। सड़क से इस विशाल तालाब का कुछ ही भाग दिखता है क्योंकि इसका प्रमुख भाग एक पहाड़ी के पीछे स्थित है। कहा जाता है कि पोलोनरुवा अपने उत्कृष्ट कृषि अर्थव्यवस्था के लिए प्रसिद्ध था। लोक-साहित्यों में लिखा गया है कि पोलोनरुवा में वर्षा की एक बूँद भी नष्ट नहीं होने दी जाती थी। पराक्रमबाहु ने अन्य राज्यों के साथ भी उत्तम व्यापार सम्बन्ध स्थापित किये थे। संक्षेप में, प्राचीन नगर पोलोनरुवा में जो भी सर्वाधिक संरचनाएं दिखती है वो सारी पराक्रमबाहु द्वारा ही निर्मित है।
भारत के राजा ने भी किया था यहाँ शासन :
राजा पराक्रमबाहु के पश्चात पोलोनरुवा पर भारत के उड़ीसा से आये राजा निषंकमल्ला ने राज किया। निषंकमल्ला को पराक्रमबाहु शासन के उपरांत, पोलोनरुवा मातृवंशीय विरासत में मिला था। परन्तु निषंकमल्ला एक कुशल एवं अनुभवी शासक नहीं था। उसने स्थानीय सामंतों एवं जमीनदारों को उचित सम्मान प्रदान नहीं किया। जिसके चलते उसे उसके राजा बनने के 9वें वर्ष, जहर देकर उसकी हत्या कर दी गयी थी। उसके पुत्र की भी उसी दिन राजतिलक के उपरांत हत्या कर दी गयी थी। तत्पश्चात राजा निषंकमल्ला के भाई उड़ीसा के राजा माघ ने पोलोनरुवा पर धावा बोल दिया। अपने भ्राता एवं भतीजे की हत्या का प्रतिशोध लेने हेतु उसने पोलोनरुवा नगर को तहस-नहस कर दिया था।
राजा निषंकमल्ला के पश्चात पोलोनरुवा पर किसी भी शक्तिशाली राजा का शासन नहीं रहा। आतंरिक मतभेदों एवं झगड़ों के फलस्वरुप धीरे धीरे इस भव्य एवं शक्तिशाली साम्राज्य का पतन हो गया।
पोलोनरुवा के प्राचीन मिट्टी के कुँए :
पोलोनरुवा एक अत्यंत सुनियोजित नगर था। वर्तमान के प्राचीन अवशेषों को देख सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि प्राचीन काल के नगरों की योजना अत्यंत व्यवस्थित प्रकार से की जाती थी। पोलोनरुवा नगर स्पष्ट रूप से तीन भागों में बंटा हुआ था।
आतंरिक भाग :
नगर का यह भाग विशेषतः राजपरिवार एवं राज्य के उच्चतम अधिकारियों हेतु निहित किया गया था। यहाँ एक भव्य महल एवं एक सभागृह स्थापित थे।
बाहरी भाग :
नगर का यह भाग पोलोनरुवा का अत्यंत सुन्दर भाग है । यहीं भगवान् बुध के पूजनीय दन्त अवशेष रखे गए थे।
बाह्यतम अथवा उत्तरी भाग :
पोलोनरुवा के इस भाग में बौध भिक्षुओं एवं सामान्य प्रजा का निवास था। अर्थात् बौध भिक्षु राजसी ठाठ-बाट एवं राजनैतिक शक्तियों से दूर एवं सामान्य प्रजा के समीप स्थित थे। प्रजा भिक्षुओं के भरण पोषण का कर्त्तव्य निभाते थे एवं उनसे ज्ञानार्जन करते थे।
राजमहल – सतमहल प्रसाद :
पोलोनरुवा का राजमहल अपने स्वर्णिम युग में देखने लायक महल रहा होगा। प्रायः भंगित अवस्था में भी यहाँ दुमंजिली ईंटों की दीवारें देखी जा सकती हैं। इसके ऊपर के पांच मंजिल लकड़ी से बनाए गए थे। दीवारों पर उपस्थित छिद्र संभवतः छत को आधार देते धरणी हेतु बने थे। इन सात मंजिलों के कारण ही इस महल को सतमहल प्रसाद कहा जाता है। इस महल से तालाब एवं पहाड़ों का मनोहारी दृश्य दिखाई पड़ता रहा होगा। यद्यपि महल अतिविशाल नहीं है, तथापि इसकी योजना अत्यंत व्यवस्थित प्रतीत होती है। महल के चारों ओर महल के सेवक एवं दास-दासियों हेतु बने निवास कक्षों के अवशेष अब भी देखे जा सकते हैं। शत्रुओं ने जब नगर पर आक्रमण किया था तब उन्होंने इस महल को आग में भस्म कर दिया था। जलने के धब्बे अब भी कुछ ईंटों पर उपस्थित हैं।
पोलोनरुवा का सभा गृह :
यह एक ऊंचे मंच पर बनी आयताकार भवन है। वर्तमान की शेष भवन में सर्वाधिक मनोहारी भाग है सभामंडप की ओर जाती सीड़ियाँ। इसके प्रवेशद्वार पर अर्ध चंद्रकार मंडल एवं सीड़ियों के दोनों ओर रक्षक सिंहों की प्रतिमाएं बनी हुई हैं। मंच की दीवारों पर हाथियों की नक्काशी की गयी है। प्रत्येक हाथी अलग रीति से उत्कीर्णित है।
मंच पर कई स्तम्भ खड़े हैं जो कभी सभामंडप का भार उठाया करते थे। मंच के अंत पर राजा का आसन है जिस पर कभी राजा का सिंहासन रखा जाता था। मंत्रिमंडल के सदस्य मंच के दोनों ओर बैठते थे। इसी सभागृह में राजा एवं मंत्रियों ने कई योजनाएँ बनायी होंगी, कई समस्याएँ सुलझायीं होंगी।
राजसी स्नानगृह – कुमार पोकुना :
राजसी स्नानगृह के अंतर्गत एक स्नान कुंड एवं समीप ही श्रृंगार गृह होते थे। सीड़ियाँ युक्त यह स्नान कुंड अनुराधापुरा के जुड़वा स्नान कुंडों की तरह ही है। कभी राजपरिवार के सदस्यों ने पुष्प एवं सुगंधी युक्त जल में यहाँ स्नान किया होगा। मुझे विश्वास नहीं होता परन्तु मेरे परिदर्शक का मानना है कि उस काल में यहाँ स्नानार्थ फुहारों की भी व्यवस्था थी।
इस कुंड के अवलोकन हेतु कुछ सीड़ियाँ उतरनी पड़ती हैं। सीड़ियाँ उतरते समय मैंने यहाँ लाल पक्की मिटटी की ईंटों से जड़े दो कुँए देखे। संभवतः यह पोलोनरुवा के जल निथारन एवं भंडारण का भाग थे।
निषंक लता मंडप :
यहाँ एक छोटे मंच पर कई स्तंभ खड़े है जो सपाट न होकर लता की तरह उत्कीर्णित हैं एवं कमल के डंठल की तरह दिखाई पड़ते हैं। ऐसे अद्भुत स्तंभ मैंने इसके पूर्व कहीं नहीं देखे। अभूतपूर्ण लालित्य का अद्भुत उदाहरण है यह स्तंभ।
जैसा कि इसके नाम से विदित है, इसका निर्माण राजा निषंक मल्ला ने करवाया था। संभवतः उन्होंने इसकी स्थापना अपने निजी ध्यानकक्ष के रूप में करवाई थी। इस पवित्र कक्ष के मध्य एक दगाबा अर्थात् स्तूप स्थापित है। कमल के डंठल सदृश स्तंभों एवं स्तूप को श्वेत एवं गुलाबी रंग में रंग कर अपनी कल्पना के विश्व में खो गयी। ऐसा प्रतीत होने लगा मानो राजा कमल के तालाब में बैठकर ध्यान कर रहे हों।
रण कोट विहार :’
ईंटों द्वारा बनाया गया सुनहरे शीर्ष का यह दगाबा अर्थात् स्तूप, निषंक मल्ला द्वारा पोलोनरुवा में बनवाये गए स्तूपों में से विशालतम स्तूप है। अभिलेखों के अनुसार इसे रुवंवेली कहा जाता है। सिंहली भाषा में रण शब्द का अर्थ है सुनहरा।
राजा महापराक्रमबाहु प्रथम की प्रतिमा :
राजसी नगर के 3 कि मी दक्षिण में पोथ्गल विहार है। यहाँ कच्चे रास्ते से होते हुए आप राजा महापराक्रमबाहु प्रथम की प्रतिमा पर पहुँचते हैं। स्थानीय मान्यताओं के अनुसार यह आदमकद की पाषाणी प्रतिमा राजा की है, जिसमे राजा के हाथ में हल है। हालाँकि, इस तथ्य की पुष्टि के लिए कोई शिलालेख या अन्य प्रमाण नहीं हैं। ऐसा प्रतीत होता ही राजा किसी खेती से जुड़े संस्कार की अगवाई कर रहे हैं।
पोथ्गल विहार :
पोथ्गल विहार या पुस्तकालय या कथा कहानी कहने का स्थान – पोलोनरुवा
महापराक्रमबाहु की प्रतिमा से कुछ ही मीटर दक्षिण की ओर एक मनोहारी भवन है। इसके मध्य में एक गोलाकार कक्ष है। यह एक प्राचीन पुस्तकालय था। मुझे स्वयं पुस्तकों से अत्यंत प्रेम है। जैसे ही मुझे इसके एक प्राचीन पुस्तकालय होने का पता चला है, मैं अपने चारों ओर हस्तलिखित पांडुलिपियों की कल्पना करने लगी। मैं ह्रदय से यह कामना करने लगी कि सर्व पांडुलिपियाँ आग में राख ना हुई हों और कुछ अब भी कहीं सुरक्षित रखी गयी हों। लोगों का मानना है कि यह स्थान प्रेक्षागृह था जहां बैठकर प्रेक्षक कथाएं सुनते थे। चूंकि गोलाकार कक्ष बौद्ध मठों में नवीन नहीं है, तथापि यह इसके प्रेक्षागृह होने के अनुमान को दृढ़ता प्रदान करता है।
इस विहार के चारों ओर कई मठ सदृश भवन थे जिनमें अधिकाँश के केवल नींव ही शेष हैं।
पोलोनरुवा के हिन्दू मंदिर :
सम्पूर्ण पोलोनरुवा में आपको हर ओर हिन्दू मंदिरों के दर्शन प्राप्त होते हैं। विशेष रूप से इनमें कई मंदिर भगवान् शिव को समर्पित हैं, जिनमें शिवलिंग स्थापित हैं। यहाँ इन्हें शिव देउल कहा जाता है। इन मंदिरों के मूल नाम लुप्त हो गए हैं। अतः इन्हें संख्याओं से जाना जाता है। इनमे कुछ हैं-
शिव देवालय – पोलोनरुवा, श्री लंका:
शिव देउल क्र. 1– पोलोनरुवा के आतंरिक भाग की सीमा पर स्थित इस देउल में कई पीतल की प्रतिमाएं थीं जिन्हें अब कोलम्बो संग्रहालय एवं पोलोनरुवा के ही पुरातत्व संग्रहालय में सुरक्षित रखा गया है।
शिव देउल क्र. 2 – पवित्र प्रांगण की सीमा पर कई हिन्दू मंदिरों के अवशेष हैं। यहाँ केवल गर्भगृह एवं उसके मध्य शिवलिंग, केवल यही शेष है।
विष्णु देउल – पोलोनरुवा में मुझे केवल यही विष्णु का मंदिर दृष्टिगोचर हुआ जो शिव देउल क्र. 2 के एक पास स्थित है। शिव मंदिर के सामान निर्मित इस मंदिर के भीतर शिवलिंग के स्थान पर भगवान् विष्णु की आदमकद प्रतिमा स्थापित