उनका जन्म 11 जून 1897 को शाहजहांपुर में हुआ था बिस्मिल के पिता शाहजहाँपुर के नगर पालिका बोर्ड के कर्मचारी थे, जहाँ उनकी आमदनी खर्च चलाने के लिए पर्याप्त नहीं थी। इसलिए, पर्याप्त धन की कमी के कारण, राम प्रसाद बिस्मिल को आठवीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़नी पड़ी। राम प्रसाद बिस्मिल बहुत कम उम्र में हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य बन गए। इस क्रांतिकारी संगठन के जरिए ही राम प्रसाद बिस्मिल को चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, सुखदेव, अशफाकुल्ला खान, राजगुरु, गोविंद प्रसाद, प्रेमकिशन खन्ना, भगवती चरण, ठाकुर रोशन सिंह और राय राम नारायण जैसे अन्य स्वतंत्रता सेनानियों का पता चला।
1919 से 1920 तक बिस्मिल असंगत रहे; उन्होंने उत्तर प्रदेश के विभिन्न गाँवों में घूम-घूम कर कई पुस्तकों का निर्माण किया। ब्रिटिश सरकार ने फैसला सुनाया कि राम प्रसाद बिस्मिल को काक साजिश में दोषी ठहराए जाने के बाद मृत्यु तक फांसी दी जाएगी। उन्हें गोरखपुर में सलाखों के पीछे रखा गया और फिर 19 दिसंबर, 1927 को 30 साल की उम्र में फांसी पर लटका दिया गया। उनकी मृत्यु ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख क्रांतिकारियों में से एक देश को लूट लिया। बिस्मिल बाद के बड़े भाई के माध्यम से अशफाकुल्ला खान से मिले। जब मैनपुरी षड्यंत्र के बाद बिस्मिल को फरार घोषित किया गया था, तो खान के भाई उन्हें बिस्मिल की बहादुरी और उर्दू कविता के बारे में बताते थे। तब से, अशफाक अपने काव्यात्मक रवैये के कारण बिस्मिल से मिलने के लिए बहुत उत्सुक थे। वह एक निजी सभा में बिस्मिल के साथ दोस्त बन गए जहां उन्होंने दोहे पढ़े। अशफाक एक कट्टर मुसलमान थे और ‘बिस्मिल’ के साथ मिलकर एक स्वतंत्र और एकजुट भारत का साझा उद्देश्य था। उनके सामान्य उद्देश्य ने उन्हें पहले से भी अधिक एकजुट किया। दोनों ने 19 दिसंबर, 1927 को भारत के लिए अपना जीवन बलिदान कर दिया, लेकिन अलग-अलग जेलों में। बचपन में राम प्रसाद बिस्मिल आर्यसमाज से प्रेरित थे और उसके बाद वे देश की आजादी के लिए काम करने लगे. बिस्मिल मातृवेदी संस्था से भी जुड़े थे. इस संस्था में रहते हुए उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई के लिए काफी हथियार एकत्रित किया, लेकिन अंग्रेजी सेना को इसकी जानकारी मिल गई. अंग्रेजों ने हमला बोलकर काफी हथियार बरामद कर लिए. इस घटना को ही मैनपुरी षड़यंत्र के नाम से भी जाना जाता है. काकोरी कांड को अंजाम देने के बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और मुकदमा चलाया गया.
“काकोरी कांड”
काकोरी कांड में शामिल होने की वजह से अंग्रेजों ने राम प्रसाद बिस्मिल को 19 दिसंबर 1927 को फांसी के फंदे पर लटका दिया था. बिस्मिल कविताओं और शायरी लिखने के काफी शौकीन थे. फांसी के तख्त पर बिस्मिल ने ‘सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है’ के कुछ शेर पढ़े. ये शेर पटना के अजीमाबाद के मशहूर शायर बिस्मिल अजीमाबादी की रचना थी. पर जनमानस में इस रचना की पहचान राम प्रसाद बिस्मिल को लेकर ज्यादा बन गई. बिस्मिल ने हिन्दू-मुस्लिम एकता पर काफी काम किए हैं और काफी लिखा भी है. उनकी पंक्ति ‘सरकार ने अशफाकउल्ला खां को रामप्रसाद का दाहिना हाथ करार दिया. अशफाकउल्ला कट्टर मुसलमान होकर पक्के आर्यसमाजी रामप्रसाद का क्रान्तिकारी दल का हाथ बन सकते हैं, तब क्या नये भारतवर्ष की स्वतन्त्रता के नाम पर हिन्दू मुसलमान अपने निजी छोटे- छोटे फायदों का ख्याल न करके आपस में एक नहीं हो सकते?’ काफी प्रसिद्ध है. अगर ये क्रांतिकारी कामयाब होता, तो नहीं होती भगत सिंह को फांसी।
बिस्मिल ने कई हिंदी कविताएँ लिखीं, जिनमें से अधिकांश देशभक्तिपूर्ण थीं। भारत के लिए उनका प्यार और उनकी क्रांतिकारी भावना जो हमेशा अपने स्वयं के जीवन की कीमत पर भी औपनिवेशिक शासकों से भारत की आजादी चाहती थी, देशभक्ति कविताओं को कलमबद्ध करते हुए उनके प्रमुख प्रेरणा थे। रामप्रसाद बिस्मिल की कविता ‘सरफ़रोशी की तमन्ना’ सबसे प्रसिद्ध कविता है
“बिस्मिल की ‘अंतिम रचना.'”
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-कातिल में है
करता नहीं क्यूं दूसरा कुछ बातचीत,
देखता हूं मैं जिसे वो चुप तेरी महफ़िल में है
ए शहीद-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार,
अब तेरी हिम्मत का चरचा गैर की महफ़िल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
वक्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमान,
हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है
खैंच कर लायी है सब को कत्ल होने की उम्मीद,
आशिकों का आज जमघट कूच-ए-कातिल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
है लिये हथियार दुश्मन ताक में बैठा उधर,
और हम तैय्यार हैं सीना लिये अपना इधर
खून से खेलेंगे होली गर वतन मुश्किल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
हाथ जिन में हो जुनूं कटते नही तलवार से,
सर जो उठ जाते हैं वो झुकते नहीं ललकार से
और भड़केगा जो शोला-सा हमारे दिल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
हम तो घर से निकले ही थे बांधकर सर पे कफ़न,
जान हथेली पर लिये लो बढ चले हैं ये कदम
जिन्दगी तो अपनी मेहमान मौत की महफ़िल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
यूं खड़ा मक़तल में क़ातिल कह रहा है बार-बार,
क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है
दिल में तूफ़ानों की टोली और नसों में इन्कलाब,
होश दुश्मन के उड़ा देंगे हमें रोको ना आज
दूर रह पाये जो हमसे दम कहाँ मंज़िल में है,
वो जिस्म भी क्या जिस्म है जिसमें ना हो खून-ए-जुनून
तूफ़ानों से क्या लड़े जो कश्ती-ए-साहिल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है.
बिस्मिल की अंतिम रचना
मिट गया जब मिटने वाला फिर सलाम आया तो क्या.
दिल की बर्वादी के बाद उनका पयाम आया तो क्या !
मिट गईं जब सब उम्मीदें मिट गए जब सब ख़याल,
उस घड़ी गर नामावर लेकर पयाम आया तो क्या !
ऐ दिले-नादान मिट जा तू भी कू-ए-यार में
फिर मेरी नाकामियों के बाद काम आया तो क्या
काश! अपनी जिंदगी में हम वो मंजर देखते
यूं सरे-तुर्बत कोई महशर-खिराम आया तो क्या
आख़िरी शब दीद के काबिल थी ‘बिस्मिल’ की तड़प
सुब्ह-दम कोई अगर बाला-ए-बाम आया तो क्या!