कोल्हापुर का श्री महालक्ष्मी मंदिर माता के 108 शक्ति पीठों में से एक है। पुराणों में कहा गया है कि महालक्ष्मी पहले तिरुपति में विराजती थीं. किसी बात पर पति भगवान विष्णु से झगड़ा हो गया तो रूठकर कोल्हापुर आ गईं. इसी वजह से हर दिवाली में तिरुपति देवस्थान की ओर से महालक्ष्मी के लिए शॉल भेजी जाती है.कोल्हापुर के महालक्ष्मी मंदिर के बारे में कहा जाता है कि देवी सती के तीनों नेत्र यहीं गिरे थे. इस मंदिर को मां भगवती का निवास माना जाता है. देवी के 51 शक्तिपीठों में इसका बड़ा महत्व है.
मंदिर निर्माण काल : इस मंदिर का निर्माण सातवीं शताब्दी में चालुक्य वंश के राजा कर्णदेव ने करवाया था। ऐसी मान्यता है कि इस मंदिर में स्थापित माता लक्ष्मी की प्रतिमा लगभग 7,000 साल पुरानी है। मंदिर के अन्दर नवग्रहों सहित, भगवान सूर्य, महिषासुर मर्दिनी, विट्टल रखमाई, शिवजी, विष्णु, तुलजा भवानी आदि अनेक देवी देवताओं के भी पूजा स्थल मौजूद हैं। इन देवी देवताओं की प्रतिमाओं में से कुछ तो 11 वीं सदी की भी बताई जाती हैं। हालांकि कुछ हाल के दौर की ही हैं। इसके अलावा मंदिर के आंगन में मणिकर्णिका कुंड पर विश्वेश्वर महादेव मंदिर भी स्थित है।
भव्य स्थापत्य : मंदिर का स्थापत्य अत्यंत भव्य और प्रभावशाली है। यहां एक काले पत्थर के मंच पर देवी महालक्ष्मीजी की चार हाथों वाली प्रतिमा, सिर पर मुकुट पहने हुए स्थापित है। माता की प्रतिमा को बहुमूल्य गहनों से सजाया गया है। उनका मुकुट भी लगभग चालीस किलोग्राम वजन का है जो बेशकीमती रत्नों से मड़ा हुआ है। काले पत्थर से निर्मित महालक्ष्मी की प्रतिमा की ऊंचाई करीब 3 फीट है। मंदिर की एक दीवार पर श्री यंत्र पत्थर पर उकेरा गया है। देवी की मूर्ति के पीछे पत्थर से बनी उनके वाहन शेर की प्रतिमा भी मौजूद है। वहीं देवी के मुकुट में भगवान विष्णु के प्रिय सर्प शेषनाग का चित्र बना हुआ है। देवी महालक्ष्मी ने अपने चारों हाथों में अमूल्य प्रतीक चिन्ह थामे हुए हैं, जैसे उनके निचले दाहिने हाथ में निम्बू फल, ऊपरी दायें हाथ में गदा कौमोदकी है जिसका सिरा नीचे जमीन पर टिका हुआ है। ऊपरी बायें हाथ में एक ढाल और निचले बायें हाथ में एक पानपात्र है। अन्य हिंदू मंदिरों से अलग पूरब या उत्तर दिशा की बजाये यहां महालक्ष्मी पश्चिम दिशा की ओर मुख करे हुए स्थापित हैं। देवी के सामने की पश्चिमी दीवार पर एक छोटी सी खुली खिड़की है, जिससे होकर सूरज की किरणें देवी लक्ष्मी का पद अभिषेक करते मध्य भाग पर आती हैं और अंत में उनका मुखमंडल को रोशन करती हैं।
सूर्य करते है किरणोत्सव : इस प्राचीन महालक्ष्मी मंदिर में रोज ही दिवाली की रौनक होती है. कई बातें हैं, जो करीब 40 हजार श्रद्धालुओं को रोज आकर्षित करती हैं. पर सबसे अहम है मंदिर का वास्तु. साल में दो बार नवंबर और जनवरी में तीन दिनों तक अस्ताचल सूर्य की किरणें गर्भगृह में महालक्ष्मी की प्रतिमा को स्पर्श करती हैं. नवंबर में 9, 10 और 11 तारीख को और इसके बाद 31 जनवरी, 1 और 2 फरवरी को. पहले दिन सूर्य किरणें महालक्ष्मी के चरणों को स्पर्श करती हैं. दूसरे दिन कमर तक आती हैं और तीसरे दिन चेहरे को आलोकित करते हुए गुजर जाती हैं. इसे किरणोत्सव कहा जाता है, जिसे देखने हजारों लोग जुटते हैं. गर्भगृह में स्थित प्रतिमा और मंदिर परिसर के पश्चिमी दरवाजे की दूरी 250 फीट से ज्यादा है. किरणोत्सव के दोनों अवसरों पर परिसर की बत्तियां बुझा दी जाती हैं. महाराष्ट्र की उत्सव परंपरा में कोल्हापुर का महालक्ष्मी मंदिर झिलमिलाती कड़ी है.
क्यों होता है किरणोत्सव : महालक्ष्मी का मुख पश्चिम में है, मुख्यद्वार 500 फीट दूर है. साल में दो बार उत्तरायण और दक्षिणायन में सूर्यास्त के वक्त सूर्य विशेष स्थिति में आता है, तब किरणें मुख्यद्वार से होती हुई महालक्ष्मी पर पड़ती है. 5 मिनट के किरणोत्सव को देखने हजारों लोग जुटते हैं. महालक्ष्मी मंदिर के बारे में एक ऐसा दावा किया जाता है जिसे अभी तक विज्ञान भी चैलेंज नहीं कर पाया है. इस मंदिर की चारों दिशाओं में एक-एक दरवाज़ा मौजूद है और मंदिर प्रशासन का दावा है कि मंदिर में ठीक-ठीक कितने खंभे मौजूद हैं इसे आज तक कोई नहीं गिन पाया.
नवरात्रि पर भी होती है दिवाली जैसी रौनक :
- नवरात्रि में यहां हर दिन देवी पालकी में बाहर आकर पूरे परिसर में भ्रमण करती हैं.
- नवरात्रि की पंचमी के दिन महालक्ष्मी स्वर्ण पालकी में सवार होकर सात किलोमीटर दूर त्रंबोली माताजी से मिलने जाती हैं.
- आमदिनों में सुबह चार बजे से ही महालक्ष्मी के नियमित दर्शन शुरू हो जाते हैं.
- दूर-दूर से आए लोगों की कतार बाहर तक खड़ी दिखाई पड़ती है.
- साढ़े आठ बजते ही देवी को स्नान कराया जाता है. फिर पुरोहित उनके शृंगार में जुट जाते हैं. दर्शन का क्रम जारी रहता है.
- साढ़े ग्यारह बजे तक उनके दूसरे स्नान की बारी आती है और एक बार फिर देवी नए रूप में सजी-संवरी होती हैं. कभी पैठणी, कभी कांजीवरम और कभी पेशवाई रंगीन साड़ियों में सजी-धजी.
बेशकीमती खजाना भी छिपा है मंदिर में : करीब 6 साल पहले जब इसे खोला गया तो मंदिर से हजारों साल पुराने सोने, चांदी और हीरों के ऐसे आभूषण सामने आए जिसकी बाजार में कीमत अरबों रुपए में हैं.
इतिहासकारों की माने तो कोल्हापुर के महालक्ष्मी मंदिर में कोंकण के राजाओं, चालुक्य राजाओं, आदिल शाह, शिवाजी और उनकी मां जीजाबाई तक ने चढ़ावा चढ़ाया है.
जब मंदिर के खजाने की गिनती शुरू हुई तो इसकी पूरी कीमत का अंदाजा लगाने के लिए करीब 10 दिन का वक़्त लग गया. मंदिर के इस खजाने का बीमा भी कराया गया है. हालांकि ये बीमा कितनी कीमत का है इसका खुलासा मंदिर ट्रस्ट ने नहीं किया है.
इससे पहले मंदिर के खजाने को साल 1962 में खोला गया था.
मंदिर से भी पुरानी है मंदिर की मूर्ति : कोल्हापुर का महालक्ष्मी मंदिर सदियों की हुई उथल-पुथल में भी बचा रहा. यहां कई शासक आए और गए, लेकिन 1300 साल पुराने इस मंदिर में पूजा की परंपरा हमेशा कायम रही. मंदिर की साप्ताहिक पूजा में 54 पुरोहित परिवार शामिल रहे हैं. इनमें से एक परिवार के सदस्य योगेश पुजारी कहते हैं कि महालक्ष्मी की प्रतिमा मंदिर के निर्माण से भी पहले की है. तभी से यहां पूजा की अटूट परंपरा है. मूल मंदिर का निर्माण 7वीं सदी के चालुक्य शासक कर्णदेव ने करवाया था.
- 11 वीं सदी में कोल्हापुर के शिलाहार राजवंश के समय मंदिर का विस्तार हुआ.
- शिलाहार वंश के राजा कर्नाटक में कल्याण चालुक्यों के मातहत कोल्हापुर में शासन करते थे.
- मंदिर के आसपास शिलाहार राजवंश के अलावा देवगिरि के प्रसिद्ध यादव राजवंश के भी शिलालेख मिले हैं.
- तेरहवीं सदी तक शिलाहार वंश का राज चला, लेकिन बाद में देवगिरि के यादवों ने उनका अध्याय खत्म कर दिया.
- कोल्हापुर का महालक्ष्मी मंदिर बीच की सदियों में हुई उथल-पुथल के दौरान भी बचा रहा.
- 1715 में विजयादशमी के दिन इसकी पुन:स्थापना का उल्लेख है.
- देवगिरि में यादवों के पराभव के बाद एक अंधायुग है, लेकिन बाद में छत्रपति शिवाजी के उदय ने पुरातन परंपराओं और स्थापत्य को एक नया जीवन दिया.
- कई प्राचीन स्मारक खंडित होने से बचे रहे. पूजा प्रथाएं भी कायम रहीं.
- कोल्हापुर में छत्रपति शिवाजी के वंशज आज भी हैं.
- महालक्ष्मी मंदिर के पास भव्य राजबाड़ा उन्हीं का स्थान है. संभाजी राजे शिवाजी की वंश परंपरा में यहां की एक सम्माननीय हस्ती हैं.
- महालक्ष्मी मंदिर से उनकी पीढ़ियों के संबंध हैं.
- छत्रपति के रिकॉर्ड में महालक्ष्मी को अंबाबाई देवघर कहा जाता है.
- 1955 तक प्राचीन मंदिर छत्रपति परिवार के ही मातहत था, अब सरकार के पास है