बीसवीं सदी के आरंभ में भूख, बेकारी, भ्रष्टाचार और अव्यवस्था से बिखराव के कगार पर खड़े चीन और बीसवीं सदी के अंत में साम्यवाद का लाल परचम थामे, विकसित, एकीकृत और आत्मनिर्भर गणराज्य के रूप में मौजूद चीन के बीच में यदि कोई एक सफल व्यक्ति खड़ा रहा तो वह था माओत्से-तुंग।
● माओ का बचपन और प्रारम्भिक जीवन ::::::::::::
माओत्से-तुंग का जन्म 26 दिसंबर 1893 को चीन के शाओनान, हुनान में एक किसान परिवार में हुआ था। उनके पिता एक धनी किसान और गेहूं के प्रसिद्ध व्यापारी थे। माओ के दो भाई थे जिनका नाम ज़ेमिन और ज़ेतन था और ज़ीजियन नाम की एक बहन थी। इनकी बहन को इनके माता पिता ने गोद लिया था।
● माओ की पढ़ाई लिखाई ::::::::::::::
8 साल की उम्र में, माओ ने स्थानीय स्कूल में अपनी प्राथमिक पढ़ाई शुरू की। वहां उन्होंने कन्फ्यूशियस के क्लासिक्स सीखे। जो वो पढ़ाई पढ़ रहे थे वो पढ़ाई उनके लिए मजेदार नही थी । उसके बाद उन्होंने 13 साल को उम्र में अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी की। जब माओ 17 साल के थे तो उन्होंने चांगशाह के एक हाई स्कूल में दाखिला लिया। तब तक राष्ट्रवाद में उनकी रुचि जॉर्ज वॉशिंगटन या नेपोलियन बोनापार्ट जैसे पात्रों के पढ़ने के माध्यम से उभर चुकी थी.
माओत्से तुंग ने चांग्शा नॉर्मल स्कूल में दाखिला लिया। वहां उनकी मुलाकात यांग चांगजी नामक एक प्रोफेसर से हुई, उन प्रोफेसर का एक अख़बार निकलता था जिसका नाम था “नया युवा ” ।
उस समय से, माओ राजनीतिक गतिविधि में रुचि रखने लगे और छात्र समाज जैसे कई संगठनों का हिस्सा थे, जिसमें उन्होंने सचिव का पद हासिल किया और स्कूलों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व किया। अंत में, माओ ज़ेडॉन्ग ने जून 1919 में एक शिक्षक के रूप में स्नातक किया और अपनी कक्षा के तीसरे सबसे उत्कृष्ट छात्र थे.
● वामपंथ का चरमपंथी, अतिवादी चेहरा ::::::::
माओवाद : प्रारंभ में भारत में जहां वामपंथी आंदोलन पूर्व सोवियत संघ से प्रभावित था और इसे मॉस्को से निर्देशित किया जाता था लेकिन भारतीय वामपंथियों में एक ऐसा धड़ा बना जोकि समाज परिवर्तन के लिए खून खराबे और हिंसा को पूरी तरह से जायज मानता था। यही आज का माओवाद है जोकि पेइचिंग से निर्देशित होता है। यह हिंसा और ताकत के बल पर समानान्तर सरकार बनाने का पक्षधर है और अपने उद्देश्यों के लिए किसी भी प्रकार की हिंसा को उचित मानते हैं। माओवाद, चरमपंथी या अतिवादी माने जाने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग का ऐसा उत्तेजित जनसमूह है जोकि जंगलों से लेकर विश्वविद्यालय, फिल्म और मीडिया तक में सक्रिय है। माओवादी राजनैतिक रूप से सचेत सक्रिय और योजनाबद्ध काम करने वाले दल के रूप में काम करते हैं। उनका तथा मुख्यधारा के अन्य राजनीतिक दलों में यह प्रमुख भेद है कि जहां मुख्य धारा के दल वर्तमान व्यवस्था के भीतर ही काम करना चाहते हैं वहीं माओवादी समूचे तंत्र को हिंसक तरीके से उखाड़कर अपनी विचारधारा के अनुरूप नई व्यवस्था को स्थापित करना चाहते हैं। वे माओ के इन दो प्रसिद्द सूत्रों पर काम करते हैं। माओ का कहना था कि 1. राजनीतिक सत्ता बन्दूक की नली से निकलती है। 2. राजनीति रक्तपात रहित युद्ध है और युद्ध रक्तपात युक्त राजनीति। भारतीय राजनीति के पटल पर माओवादियों का एक दल के रूप में उदय होने से पहले यह आन्दोलन एक विचारधारा की शक्ल में सामने आया था पहले पहल हैदराबाद रियासत के विलय के समय फिर 1960-70 के दशक में नक्सलबाड़ी आन्दोलन के रूप में वे सामने आए।
★ माओ की शुरुआती जीवन :::::::::::::::::
चीन पर 2 हजार वर्षों से भी अधिक पुराने सामंती राजतंत्र का शासन था। खेती का काम देखने के अलावा माओ को अपने स्कूल जाने के लिए रोज 20 किलोमीटर पैदल चलना पड़ता था। शायद इसी पैदल यात्रा ने माओ को क्विंग राजतंत्र के अत्याचारों और बिखराव के कगार पर खड़े चीन की वास्तविकताओं से परिचित करवाया। इसी पैदल यात्रा में शायद आगे चलकर ऐतिहासिक ‘लांग वॉक टू फ्रीडम’ (स्वतंत्रता के लिए लंबी यात्रा) का स्वरूप ले लिया। 1911 में चीन के महान क्रांतिकारी अग्रदूत डॉ. सन यान सन की रहनुमाई में हुई क्रांति से चीन में राजतंत्र का तख्ता पलट गया। इसका माओ के जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा। इस तख्तापलट के बावजूद एक देश के रूप में चीन की दिशाहीनता ने माओ को व्यथित कर दिया। 1921 में गठित हुई चीनी कम्युनिस्ट पार्टी से शुरुआत से ही जुड़ने के बाद माओ को उसमें महत्व इसलिए मिला, क्योंकि 1924 से 28 के बीच उन्होंने पार्टी में संकीर्णतावाद और विलयवाद के बीच के दो भटकावों को वक्त पर पहचाना और पार्टी को सही राह दिखाई। हालांकि यह विरोधाभास है, लेकिन ‘सत्ता बंदूक की नली से ही निकलती है’ कहने और मानने वाला माओ कवि भी था। चीन पर साम्यवाद जैसे समतामूलक सिद्धांत की लाल चादर बिछाने के लिए कई मासूमों के रक्त का इस्तेमाल हुआ है। लेकिन इस सबके बाद भी कविहृदय माओ ने देश की संवेदनाओं को समझकर ‘भूमि सुधार’ और सहकारी समितियों के उन्नत स्वरूप ‘पीपुल्स कम्युन’ जैसी महत्वपूर्ण परियोजनाएं चलाईं।
केवल 6 साल में संपूर्ण साम्यवाद लाने के उद्देश्य से स्थापित कम्युनों में उद्योग, कृषि, वाणिज्य, शिक्षा और सेना जैसे विविध विषयों को समेटकर एक सामुदायिक स्वरूप बुना गया था। इन कम्युनों की बाद में काफी आलोचना हुई थी। माओ ने चूहे, खटमल, मक्खी और मच्छरों को देश की कृषि का सबसे बड़ा दुश्मन मानकर इनके खिलाफ व्यापक जनांदोलन चलाया। साम्यवाद और सैन्य संचालन पर माओ के विचारों का संकलन ‘लिटिल रेड बुक ऑफ कोटेशन्स’ या लाल किताब उस दौर के युवा क्रांतिकारियों की गीता और बाइबल थी।
★ माओ को क्या था पसंद ::::::::::::::::::::
माओ को तैरना बहुत पसंद था। जब जहां और जितना मौका मिलता, वे तैरते। एक बार उन्होंने अपने साथी तैराकों से कहा था- ‘तैरते वक्त अगर डूबने के बारे में सोचोगे तो डूब जाओगे, नहीं सोचोगे तो तैरते रहोगे।’ तैरते रहने की इसी अदम्य इच्छाशक्ति ने शायद उनको सैन्य विद्रोहों, पश्चिम के दुष्प्रचार, चीन के भूस्वामियों के विरोध, च्यांग काई शेक, जापानी आक्रमण, अमेरिका और रूस जैसी चुनौतियों के भंवर में भी डूबने नहीं दिया।
भारत में माओवाद के उत्तरदायी कारण में कई तरह के कारण जिम्मेदार हैं। राजनीतिक कारणों की प्रतिक्रिया के तौर पर भारत में माओवाद असल में नक्सलबाड़ी के आंदोलन के साथ पनपा और पूरे देश में फैल गया। राजनीतिक रुप से मार्क्स और लेनिन के रास्ते पर चलने वाली कम्युनिस्ट पार्टी में जब अलगाव तो एक धड़ा भाकपा मार्क्सवादी के रुप में सामने आया और एक धड़ा कम्युनिस्ट पार्टी के रुप में। इनसे भी अलग हो कर एक धड़ा सशस्त्र क्रांति के रास्ते पर चलते हुए पड़ोसी देश चीन के माओवादी सिद्धांत में चलने लगा।
★ भारत में माओवाद पनपने के राजनीतिक कारण : ::::
भारत में माओवादी सिद्धांत के तहत पहली बार हथियारबंद आंदोलन चलाने वाले चारु मजूमदार के जब 70 के दशक में सशस्त्र संग्राम की बात कर रहे थे, तो उनके पास एक पूरी विरासत थी। 1950 से देखा जाए तो भारतीय किसान, संघर्ष की केवल एक ही भाषा समझते थे, वह थी हथियार की भाषा। जिन्होंने जमींदारों के खिलाफ, ब्रिटिश सरकार के खिलाफ हथियार उठाया था। वर्ष 1919 में बिहार के चौराचौरी में 22 पुलिस वालों को जलाया गया था, उसमें भी सबसे बड़ी भागीदारी किसानों की थी। उसके बाद ही तो गांधीजी ने असहयोग और अहिंसक आंदोलन की घोषणा की थी। लेकिन किसानों ने तो अपने तरीके से अपने आंदोलन की भाषा समझी थी और उसका इस्तेमाल भी किया था। माओवाद पनपने के आर्थिक कारण : देश में विकास की बड़ी योजनाएं भी बड़ी संख्या में लोगों को विस्थापित कर रही है। अतीत में ये बड़े बांध थे लेकिन आज ये सेज (स्पेशल इकानामिक जोन) बन गए है। लोगों के पुनर्वास की योजनाएं भी सफल नहीं रही हैं, इससे जनता में रोष बढ़ता ही जाता है। इसी रोष को लक्षित कर माओवादी पार्टी ने अपने पिछले सम्मेलन में साफ रूप से कहा था कि वे इस प्रकार की विकास परियोजनाओं का विरोध करेंगे तथा विस्थापितों का साथ भी देंगे। यदि माओवादी ऐसा करने में सफल हैं तो निश्चित रूप से एक राज्य के रूप में हमारा देश नैतिक अधिकार खो रहा है और माओवादियों के प्रभाव क्षेत्र में काफी वृद्धि अपने हो रही है। अगर आर्थिक कारणों को देखा जाए तो वे भी माओवाद के प्रसार के लिए एक हद तक जिम्मेदार है। हालांकि पिछले 30 सालों में गरीबी उन्मूलन के प्रयासों को भारी सफलता मिली है लेकिन यह भी माना ही जाता रहा है कि ये योजनाएं भ्रष्टाचार और अपारदर्शिता का गढ़ रही हैं। गरीबी उन्मूलन के आंकड़े बहुत भरोसे के लायक नहीं माने जा सकते हैं क्योंकि आबादी का बड़ा हिस्सा निर्धनता की रेखा से जरा सा ही ऊपर है, तकनीकी रूप से भले ही वे निर्धन नहीं हों लेकिन व्यवहार में और अर्थव्यवस्था में आया थोडा सा बदलाव भी उन्हें वापस गरीबी रेखा से नीचे धकेल देने के लिए काफी होता है। फ़िर जिस अनुपात में कीमतें बढ़ जाती हैं उसी अनुपात में निर्धनता के मापदंड नहीं बदले जाते हैं। इस प्रकार बड़ी संख्या में लोग निर्धनता के चक्र में पिसते रहते हैं और उनकी आंखों के सामने और अमीर बनते जा रहे है फ़िर वह लोग ही क्यों बदतर होते हालातों में जीने के लिए विवश हैं। भारत के आंतरिक क्षेत्र जो विकास से दूर है तथा इलाके जो आज माओवाद से ग्रस्त हैं वे इसी तरह की निर्धनता से ग्रस्त है। बेरोजगारी भी अनेक समस्याओं को जन्म देती है इसके चलते विकास रुका रहता है, निर्धनता बनी रहती है तथा लोग असंतुष्ट बने रहते है। यह स्थिति लोगों को रोजगार की तलाश में प्रवासी बना देती है, पंजाब के खेतों में काम करते बिहारी मजदूर इसका सबसे अच्छा उदाहरण माने जा सकते है।
★ पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की स्थापना ::::::
1 अक्टूबर, 1949 को पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की आधिकारिक तौर पर स्थापना की गई थी। बीस से अधिक वर्षों के संघर्ष के बाद, माओ और पार्टी की सत्ता में लंबे समय से प्रतीक्षित आगमन आखिरकार पूरा हुआ।. माओत्से तुंग बीजिंग में बसे, विशेष रूप से झोंगनहाई में। वहाँ के शासक ने कई इमारतों के निर्माण का आदेश दिया, जिनमें से एक छत वाला कुंड था जहाँ वह बहुत समय बिताना पसंद करते थे. कम्युनिस्ट नेता का वुहान में एक और परिसर था, जिसमें बगीचे, बेडरूम, स्विमिंग पूल और यहां तक कि एक बम-विरोधी आश्रय भी था। शुरुआत से, माओ ने निजी भूमि को जब्त करने का आदेश दिया ताकि राज्य उन संपत्तियों को नियंत्रित कर सके। भूमि के बड़े हिस्से को विभाजित किया गया और छोटे किसानों को दिया गया. इसके अलावा, औद्योगिकीकरण की योजनाएं लागू की गईं, क्योंकि उस समय चीन अभी भी एक मौलिक ग्रामीण राष्ट्र था और जिसकी अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से कृषि पर निर्भर थी.
★ माओ की मौत ::::::::::::::::::::
माओ ज़ेडॉन्ग का 9 सितंबर, 1976 को 82 वर्ष की आयु में निधन हो गया। पिछले दिनों उनकी तबीयत खराब हो गई थी। उसी वर्ष उन्हें दो दिल के दौरे का सामना करना पड़ा था और मृत्यु से चार दिन पहले वे तीसरे दिल के दौरे के शिकार थे।. ग्रेट हॉल ऑफ द पीपल में एक हफ्ते के लिए उनका क्षीण शरीर सामने आया था। वहां, दस लाख से अधिक लोगों ने चीनी राष्ट्रपति के प्रति अपना सम्मान प्रदर्शित किया. उसके अंगों को फॉर्मेल्डिहाइड में संरक्षित करने के लिए निकाला गया और उसके शरीर को बीजिंग शहर के एक मकबरे में स्थानांतरित कर दिया गया.