चौसा का युद्ध 7 जून 1539 में लड़ा गया था | यह युद्ध शेरशाह और मुगल शासक हूमायूं के मध्य लड़ा गया था| इस युद्ध में शेरशाह ने हूमायूं को बुरी तरह पराजित किया था ।
चौसा का युद्ध मुग़ल बादशाह हुमायूँ और सूर साम्राज्य के संस्थापक शेरशाह के मध्य हुआ था। यह युद्ध वर्ष 1540 ई. में लड़ा गया था। इस युद्ध के परिणामस्वरूप हुमायूँ शेरशाह सूरी द्वारा पराजित हुआ। बिलग्राम का युद्ध जीतने के बाद शेरशाह ने हुमायूँ को भारत छोड़ने के लिए विवश कर दिया। उत्तर भारत में द्वितीय अफ़ग़ान साम्राज्य के संस्थापक शेरशाह द्वारा बाबर के चंदेरी अभियान के दौरान कहे गये ये शब्द अक्षरशः सत्य सिद्ध हुए कि- “अगर भाग्य ने मेरी सहायता की और सौभाग्य मेरा मित्र रहा, तो मै मुग़लों को सरलता से भारत से बाहर निकाला दूँगा।”
★ युद्ध होने का कारण :- हमायूँ का प्रबलतम शत्रु शेर खाँ था. बंगाल में विजय के बाद हुमायूँ निश्चिंत होकर आराम फरमाने लगा. बंगाल में हुमायूँ को आराम करता देख शेर खाँ ने क्रमशः चुनार, बनारस, जौनपुर, कन्नौज, पटना, इत्यादि पर अधिकार कर लिया. इन घटनाओं ने हुमायूँ को विचलित कर दिया. मलेरिया के प्रकोप से हुमायूँ की सेना कमजोर पड़ गयी थी इसलिए हुमायूँ ने सेना की एक छोटी से टुकड़ी छोड़कर आगरा के लिए कूच कर गया. हमायूँ के वापस लौटने की सूचना पाकर शेर खाँ उर्फ़ शेरशाह ने मार्ग में ही हुमायूँ को घेरने का निश्चय किया. हुमायूँ ने वापसी में अनेक गलतियाँ कीं. सबसे पहले उसने अपनी सेना को दो भागों में बाँट दिया था. सेना की एक टुकड़ी दिलावर खाँ के अधीन मुंगेर (बिहार) पर आक्रमण करने को भेजी गई थी. सेना की दूसरी टुकड़ी के साथ हुमायूँ खुद आगे बढ़ा. हुमायूँ के सैन्य सलाहकारों ने उसे सलाह दिया था कि वह गंगा के उत्तरी किनारे से चलता हुआ जौनपुर पहुँचे और गंगा पार कर के शेरशाह/शेरखाँ पर हमला करे परन्तु उसने उन लोगों की बात नहीं मानी. वह गंगा पार कर दक्षिण मार्ग से ग्रैंड ट्रंक रोड से चला. यह मार्ग शेर खाँ के नियंत्रण में था. कर्मनासा नदी के किनारे चौसा नामक स्थान पर उसे शेरशाह के होने का पता चला. इसलिए वह नहीं पार कर शेरशाह पर आक्रमण करने को उतारू हो उठा, लेकिन यहाँ भी उसने लापरवाही बरती. उसने तत्काल शेर खाँ पर आक्रमण करने को उतारू हो उठा, लेकिन यहाँ भी उसने लापरवाही बरती. उसने तत्काल शेरशाह पर आक्रमण नहीं किया. वह तीन महीनों तक गंगा नदी के किनारे समय बरबाद करता रहा. शेर खाँ ने इस बीच उसे धोखे से शान्ति-वार्ता में उलझाए रखा और अपनी तैयारी करता रहा. वस्तुतः वह बरसात की प्रतीक्षा कर रहा था.
★ शेरशाह की थी धोखे की योजना :- वर्षा के शुरू होते ही शेर खाँ ने आक्रमण की योजना बनाई. हुमायूं का शिविर गंगा और कर्मनासा नदी के बीच एक नीची जगह पर था. अतः बरसात का पानी इसमें भर गया. मुगलों का तोपखाना नाकाम हो गया और सेना में अव्यवस्था व्याप्त गई. इसका लाभ उठा कर 25 जून, 1539 की रात्रि में शेरशाह ने मुग़ल छावनी पर अचानक धोखे से आक्रमण कर दिया. मुग़ल खेमे में खलबली मच गई. सैनिक प्राण बचाने के लिए गंगा नदी में कूद गए. उनमें कुछ डूबे और कुछ अफगान सेनाओं के द्वारा मारे गए. हुमायूँ खुद भी अपनी जान बचाकर गंगा पार कर भाग गया. उसका परिवार खेमे में ही रह गया. हुमायूँ कुछ विश्वासी मुगलों की सहायता से आगरा पहुँच सका. हुमायूँ की पूरी सेना नष्ट हो गई.
★ युद्ध के परिणाम :-
● चौसा के युद्ध के बाद हुमायूँ का पतन तय हो गया. उसकी सेना नष्ट हो चुकी थी. उसके परिवार के कुछ सदस्य भी इस युद्ध में मारे गए.
● अफगानों की शक्ति और महत्त्वाकांक्षाएँ पुनः बढ़ गयीं. अब वे मुगलों को भगाकर आगरा पर अधिकार करने की योजनाएँ बनाने लगे.
● शेर खाँ ने अब शेरशाह की उपाधि धारण कर ली.
● शेरशाह ने अपने नाम का “खुतबा” पढ़वाया. सिक्के ढलवाये और फरमान जारी किए.
● उसने जलाल खाँ को भेजकर बंगाल पर अधिकार कर लिया और खुद बनारस, जौनपुर और लखनऊ होता हुआ कन्नौज जा पहुँचा.