भारत के लोगों की हमेशा से ही एक खासियत रही हैं कि वह कभी भी अपने शहीदों के बलिदान को भूलता नहीं हैं. इसका एक दूसरा पहलु यह भी हो सकता है कि यहाँ के देशभक्तों ने ऐसा युद्ध लड़ा हैं कि वह आज तक भुलाये नहीं भूलता हैं. देश में ऐसे वीर जवान हुए हैं जिन्होंने दुश्मन के सामने संख्या में कम होने के बावजूद भी कभी भी अपने घुटने नहीं टेके. आज हम आपको ऐसी ही वीर गाथा के बारे में विस्तार से बताएँगे जो कि आपको अपने पूर्वजों के प्रति गर्व से भर देगी.
आज हम आपको जिस वीरगाथा के बारे में बताएँगे उसे सारागढ़ी का युद्ध और बैटल ऑफ़ सारागढ़ी के नाम से जाना जाता हैं.सारगढ़ी युद्ध 12 सितम्बर 1897 को ब्रिटिश भारतीय सेना और अफ़ग़ान लड़ाकों के मध्य लड़ा गया। वर्तमान मे सारागढ़ी अब पाकिस्तान मे है । अंग्रेजी भारतीय सेना में 36 सिख (सिख रेजिमेंट की चौथी बटालियन) के 21 सिख थे, जिन पर 10,000 अफ़्ग़ानों ने हमला किया। सिखों का नेतृत्व कर रहे हवलदार ईशर सिंह ने अंतिम सांस तक युद्ध करने का निर्णय लिया। इसे सैन्य इतिहास में इतिहास के सबसे महान अन्त वाले युद्धों में से एक माना जाता है।
घटनाक्रम कुछ इस प्रकार है.
1897 के साल तक अंग्रेजों का दबदबा पूरी बढता ही जा रहा था. पुरे भारतवर्ष पर कब्ज़ा करने के बाद ब्रिटिश सेना अफगानिस्तान पर कब्ज़ा करना चाहती थी. उन्होंने अफगानिस्तान पर हमले करना भी शुरू कर दिए थे. अफगानिस्तान सीमा पर ब्रिटिश सेना के कब्ज़े में दो किले गुलिस्तान का किला और लॉकहार्ट का किला थे.ऐसा कहा जाता हैं कि ओराक्ज़ई जनजाति के अफगान उस समय के गुलिस्तान और लोखार्ट के किलों पर अपना कब्ज़ा करना चाहते थे. इन दोनों किलों का निर्माण रणजीत सिंह द्वारा करवाया गया था. इन दोनों की किलों के पास सारागढ़ी की एक चौकी हुआ करती थी. यह चौकी संचार की दृष्टी से बेहद ही महत्वपूर्ण थी. यही से ही आस पास के इलाकों में संपर्क किया जाता था. इस चौकी की सुरक्षा की जिम्मेदारी 36वी सिख रेजिमेंट को सौपी गयी थी.
यह युद्ध की शुरुआत 12 सितम्बर 1897 को होती हैं ।10000 अफ़ग़ान पश्तूनों ने तत्कालीन भारतीय आर्मी पोस्ट सारागढ़ी पर आक्रमण कर दिया.सारागढ़ी किले पर बनी आर्मी पोस्ट पर ब्रिटिश इंडियन आर्मी की 36वीं सिख बटालियन के 21 सिख सिपाही तैनात थे.दुश्मन की इतनी बड़ी संख्या देखकर सब हैरान थे. गुरमुख सिंह पोस्ट की सुरक्षा के लिए कर्नल हौथटन को एक तार करते हैं कि की उनपर हमला होने वाला हैं उन्हें मदद की आवश्कता हैं. कर्नल हौथटन के अनुसार सारागढ़ी में तुरन्त सहायता नहीं भेज सकते थे. यह जानकारी आने के बाद 21 सिखों का नेतृत्व कर रहे ईशर सिंह निर्णय लेते हैं कि वह मृत्युपर्यंत इस चौकी को नहीं छोड़ेंगे. ईशर सिंह के साथ उनके सैनिकों ने भी दिया और अन्तिम साँस तक लड़ने का निर्णय लिया. सारे सिख सैनिक अपनी-अपनी बंदूकें लेकर किले के ऊपरी हिस्से पर खड़े हो गए थे. अफगानी निरंतर आगे बढते ही जा रहे थे. हर और सन्नाटा पसर गया था. युद्ध के मैदान में केवल घोड़ों की आवाज़ सुनाई दे रही थी. अफगानों को लगा कि इस छोटी सी पोस्ट को जीतना काफी आसान होगा. पर ऐसा समझना उनकी भारी भूल साबित हुई.उन्हें नहीं पता था कि जाबांज सिख किस मिट्टी के बने हुए थे. उन बहादुरों ने भागने के बजाय अपनी आखिरी सांस तक लड़ने का फैसला किया ।बंदूकों से जंग नहीं जीतता देख अफगान किले के दरवाजे तोडना शुरू देते हैं लेकिन उन्हें इसमें भी सफलता नहीं मिलती हैं. लेकिन अचानक किले की एक दीवार ढह जाती हैं और अफगान किले में घुस जाते हैं अचानक से गोलियों से चलने वाली लड़ाई चाकू और तलवार में बदल जाती हैं.. जब गोलियां खत्म हो गयी तो तलवारों से युद्ध हुआ ।इस युद्ध में 20 सिखों से सीधे तौर पर अफगानों से लड़ाई कर रहे थे. 1 सिख गुरमुख सिंह युद्ध की सारी जानकारी कर्नल हौथटन को तार के माध्यम से भेज रहे थे. आखिरकार वही हुआ जिसका सबको अंदाज़ा था दुश्मन से लड़ते लड़ते 21 में से 20 सिख शहीद हो गए. अंतिम रक्षक गुरमुख सिंह को अफगानों ने आग के गोलों से मारा. गुरमुख सिंह अपने अतिम क्षण तक “बोले सो निहाल, सत श्री अकाल” बोलते रहे
सारागढ़ी के इस युद्ध में 21 सिख ने अफगानों के 600 लोगों को मार गिराया. हालाँकि इस लड़ाई में 36 वी रेजिमेंट के सभी 21 सिख शहीद हो गए. लेकिन 21 सिखों ने ओराक्ज़ई जनजातियों के अफगानों को पुरे 1 दिन तक परेशान रखा. सारागढ़ी को तबाह करने के पश्चात अफ़्ग़ानों ने गुलिस्तां किले पर निगाहें डाली लेकिन इन सब में बहुत देरी हो चुकी थी और 13 सितम्बर की मध्यरात्रि अतिरिक्त सेना किले की सुरक्षा के लिए पहुँच गयी. और मात्र 2 दिन के भीतर सारागढ़ी पर वापस भारतीय ब्रिटिश सेना का कब्ज़ा हो गया. ऐसा घमासान युद्ध हुआ कि उसकी मिसालें आज तक दी जाती हैं.इतिहासकार मानते हैं कि ये इतिहास का ऐसा महानतम युद्ध है, जब योद्धा आमने-सामने की लड़ाई में आखिरी साँस तक अद्भुत वीरता से लड़े. मानव इतिहास में ऐसा कोई दूसरा उदाहरण नहीं है, जब ऐसा भयंकर मुकाबला हुआ हो.
अंत में 21 के 21 सिख सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए, लेकिन 600 से अधिक अफगानों को मौत के घाट उतारकर. अफ़ग़ान जीत तो गए लेकिन उनका भारी नुकसान भी हुआ था. इस युद्ध के दो दिन बाद ब्रिटिश आर्मी ने आक्रमण करके पुनः सारागढ़ी पोस्ट पर कब्जा कर लिया.
उन महान भारतीय सैनिकों को मरणोपरांत British Empire की तरफ से बहादुरी का सर्वोच्च पुरस्कार Indian Order of Merit प्रदान किया गया. यह पुरस्कार आज के परमवीर चक्र के बराबर है.
12 सितम्बर को Saragarhi Day घोषित किया गया और यह आज भी हर वर्ष ब्रिटेन, इंग्लैंड में मनाया जाता है. भारत में सिख रेजीमेंट इसे Regimental Battle Honours Day के रूप में मनाती है.
” सारागढ़ी के शहीद सैनिक के नाम “
सारागढ़ी के 21 सैनिकों की वीरता से आप अच्छी तरह वाकिफ हो गए होंगे. इस छोटी सी टुकड़ी का नेतृत्व ईशर सिंह ने किया था. जो कि ब्रिटिश भारतीय सेना में हवालदार के रूप में काम किया करते थे. इस वीर गाथा में एक तथ्य यह भी हैं जिन 21 वीरों ने यह लड़ाई लड़ी उनमे से अधिकतर सैनिक नहीं थे. उनमें कुछ रसोईये थे तो कुछ सिग्नलमैन थे, लेकिन वह सब अपने साथियों के लिए जंग में उतरे थे.
ईशर सिंह के साथ 20 अन्य सैनिकों ने उनका इस युद्ध में साथ दिया उनके नाम निनानुसार हैं.
गुरमुख सिंह
चंदा सिंह
लाल सिंह
जीवन सिंह
बूटा सिंह
जीवन सिंह
नन्द सिंह
राम सिंह
भगवान सिंह
भोला सिंह
दया सिंह
नारायण सिंह
साहिब सिंह
हिरा सिंह
सुन्दर सिंह
उत्तर सिंह.
करमुख सिंह
गुरमुख सिंह (Same Name)
भगवान सिंह (Same Name)
राम सिंह (Same Name)
सारागढ़ी का युद्ध