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★ शिव के स्वरूप :-  आदिगुरु शंकराचार्य :–adi guru shankracharya

★ शिव के स्वरूप :- आदिगुरु शंकराचार्य :–adi guru shankracharya

Posted on November 28, 2019January 20, 2021 By admin No Comments on ★ शिव के स्वरूप :- आदिगुरु शंकराचार्य :–adi guru shankracharya

भारतीय इतिहास में ऐसे कई महान दिग्गज हुए हैं, जिनका जीवन ही उनका परिचय रहा है। उन्हें किसी विशेष परिचय की जरूरत नहीं होती। केवल उनका एक जिक्र ही काफी होता है। ऐसा ही एक संन्यासी बालक था जो एक दिन गांव-गांव भटकता हुआ एक ब्राह्मण के घर भिक्षा मांगने पहुंचा।

तब उसकी आयु मात्र सात वर्ष थी। वह ब्राह्मण के घर के बाहर पहुंचा और भिक्षा मांगी। लेकिन यह एक ऐसे ब्राह्मण का घर था जिसके पास खाने तक को कुछ नहीं थ, तो वह भिक्षा कैसे देते। अंतत: ब्राह्मण की पत्नी ने बालक के हाथ पर एक आंवला रखा और रोते हुए अपनी गरीबी का वर्णन किया। उस महिला को यूं रोता हुआ देख बालक का हृदय द्रवित हो उठा। तभी उस बालक ने मन से मां लक्ष्मी से निर्धन ब्राह्मण की विपदा हरने की प्रार्थना की जिसके पश्चात प्रसन्न होकर महालक्ष्मी ने उस परम निर्धन ब्राह्मण के घर में सोने के आंवलों की वर्षा कर दी। यह थी उस अद्भुत बालक की कहानी, जो ना केवल इस कार्य से बल्कि अपने अनेक कार्यों से सृष्टि में जाना गया। जगत् जननी महालक्ष्मी को प्रसन्न कर उस ब्राह्मण परिवार की दरिद्रता दूर करने वाले इस बालक का नाम ‘शंकर’ था, जिसने दक्षिण भारत के कालाड़ी ग्राम में एक ब्राह्मण परिवार में ही जन्म लिया था। अपने इन्हीं कार्यों के कारण यह बालक आगे चलकर “जगद्गुरु शंकराचार्य” के नाम से विख्यात हुआ।

★ शंकराचार्य का जन्म :—

कलदी का पुराना नाम “शालका” गाँव था। इस गाँव मे  शिवगुरु एवं आर्याम्बा नामक ब्राह्मण परिवार रहता था। बहुत सालों तक उनकी कोई अपनी संतान नही हुई थी। ब्राह्मण परिवार ने थ्रिस्सूर नगर के बीच बने शिव मंदिर में शिव भगवान की आराधना की और उसके बाद शिव भगवान उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें वरदान स्वरूप एक पुत्र दिया, जिसका नाम उन्होंने शंकर रखा। बालक शंकर का जन्म सन 788 ईस्वी में हुआ था। एक पुत्र प्राप्त हुआ जिसका नाम शंकर रखा गया।

★ क्या है “कलदी” नाम का मतलब :—

कलदी का सीधा सा मतलब है “कदमों के तले”. इसके लिए एक रोचक किस्सा भी है.   बालक शंकर की माता आर्याम्बा प्रति दिवस प्रातः पेरियार  नदी में नहाने जाया करती जो उन दिनों उनके घर से  लगभग 3 किलोमीटर की दूरी पर थी. एक दिन अपने बालक को साथ ले जब नदी की ओर जा ही रही थी कि वह मूर्छित हो गिर पड़ी. बालक शंकर से यह सहा  नहीं गया. उसने पूरी श्रद्धा से अपने कुलदेव श्री कृष्ण से सहायता मांगी. श्री कृष्ण बालक शंकर की भक्ति से द्रवित हो, आश्वस्त किया कि चिंता मत करो, यह नदी तुम्हारे “कदमों के तले” बहेगी. वही हुआ भी. नदी ने अपना रास्ता बदल लिया और शंकर के घर से लग कर बहने लगी. नदी के बीच एक द्वीप दिखाई देता  है. संभवतः यह नदी के दो भागों में बंट कर बहने से बना  होगा.

★ कम आयु मे ही रट लिए सारे ग्रंथ :—-

मात्र 2 वर्ष की आयु में ही बालक शंकराचार्यजी ने वेद, पुराण, उपनिषद्, रामायण, महाभारत आदि ग्रंथ कंठस्थ कर लिए थे। अपने शांत व्यवहार के कारण ही शंकराचार्यजी छोटी सी उम्र में संन्यास लेने की ठान बैठे थे, लेकिन अकेली माता का मोह उन्हें कहीं जाने नहीं देता था।

★ संन्यासी होने का फैसला ले लिया :—

परन्तु एक दिन उन्होंने निश्चय कर लिया कि हो ना हो वे संन्यास लेने के लिए जरूर जाएंगे। लेकिन जब मां द्वारा रोकने की कोशिश की गई तो बालक शंकर ने उन्हें नारद मुनि से जुड़ी एक कथा सुनाई। इस कथा के मुताबिक नारदजी की आयु जब मात्र पांच वर्ष की थी, तभी वे अपने स्वामी की अतिथिशाला में अतिथियों के मुंह से हरिकथा सुनकर साक्षात हरि से मिलने के लिए व्याकुल हो गए, लेकिन अपनी मां के स्नेह के कारण घर छोड़ने का साहस न जुटा पाए। इसीलिए वे कहीं भी जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाए, किन्तु उस काली रात ने उनके जीवन का एक बड़ा फैसला लिया। अचानक उस रात सर्पदंश के कारण उनकी मां की मृत्यु हो गई। इसे ईश्वर की कृपा मानकर नारद ने घर छोड़ दिया, जिसके बाद ही नारद मुनि अपने जीवन के असली पड़ाव तक पहुंच पाए थे। कथा सुनाकर बालक शंकर ने अपनी मां से कहा, “मां, जब नारदजी ने घर का त्याग किया, तब वे मात्र पांच वर्ष के थे। यह तो ईश्वर का खेल था कि उनकी माता के ना चाहते हुए भी परिस्थितियों के आधार पर नारदजी जाने में सफल हुए। मां, मैं तो आठ वर्ष का हूं और मेरे ऊपर तो मातृछाया सदैव रहेगी। नन्हे बालक की बात सुनकर मां फिर से दुखी हो गईं। मां को समझाते हुए बालक शंकर बोला, “मां, तुम दुखी क्यों होती हो। देखो मेरे सिर पर तो हमेशा ही तुम्हारा आशीर्वाद रहेगा। तुम चिन्ता मत करो। तुम्हारी ज़िंदगी के आखिरी पड़ाव पर मैं उपस्थित रहूंगा और तुम्हारे पार्थिव शरीर को अग्नि देने जरूर आऊंगा”। इतना कहते हुए बालक शंकर ने घर से बाहर पांव रखा और संन्यासी जीवन में आगे बढ़ते चले गए। कहते हैं कि वर्षों बाद शंकराचार्यजी अवश्य ही माता की मृत्यु के समय उपस्थित हुए और उनके शरीर को अग्नि देने के लिए आगे बढ़ना चाहा लेकिन कुछ परंपरागत सिद्धांतों के चलते ब्राह्मणों ने उन्हें ऐसा करने से रोका।

★ ब्राह्मणों ने किया विरोध :—-

ब्राह्मणों द्वारा शंकराचार्यजी को रोकने का एक ही तर्क था कि एक संन्यासी, जो कि सभी दुनियावी मोह-माया से मुक्त होता है, उसे अपनी खुद की मां से भी स्नेह नहीं रखना चाहिए। यह उसके संन्यासी जीवन पर अभिशाप के समान है। लेकिन तब शंकराचार्यजी ने उन्हें यह ज्ञात कराया कि उनके द्वारा ली गई प्रतिज्ञा उनके संन्यासी जीवन का हिस्सा नहीं थी।उन्होंने समझाया कि वह अपनी मां के प्यार के लिए नहीं बल्कि उन्हें दी गई प्रतिज्ञा का पालन करने के लिए अग्नि अर्पित करने आए हैं। उनकी यह प्रतिज्ञा तब ली गई थी जब उन्होंने संन्यास जीवन धारण भी नहीं किया था। इसीलिए वे किसी भी प्रकार का अधर्म नहीं कर रहे हैं।

तत्पश्चात सभी ब्राह्मणों ने उन्हें ऐसा करने की आज्ञा प्रदान की। बाद में शंकराचार्यजी ने अपने घर के ठीक सामने ही अपनी मां के शव को अग्नि अर्पित की थी। कहा जाता है कि शंकराचार्यजी द्वारा इस प्रकार घर के सामने अंतिम संस्कार करने के बाद ही दक्षिण भारत के इस क्षेत्र में भविष्य में सभी घरों के सामने ही अंतिम संस्कार करने की रीति आरंभ हो गई। यह रीति आज भी इसी तरह से चल रही है।

★ जगद्गुरु शंकराचार्य का भारत भ्रमण :—-

जगद्गुरु शंकराचार्य के जीवन से जुड़ी एक और कथा इतिहास में प्रचलित रही है। यह कथा उनके भारत भ्रमण से जुड़ी है। कहते हैं कि आठवीं शताब्दी के दौरान आदि शंकराचार्यजी जब सांस्कृतिक दिग्विजय के लिए भारत भ्रमण पर निकले थे तब वे एक बार मिथिला प्रदेश (जो कि आज के समय में दरभंगा, बिहार का हिस्सा है) से निकले थे। यहां वे मंडन मिश्र से मिले। मिलने के बाद दोनों के बीच करीब सोलह दिन तक लगातार शास्त्रार्थ चला। शास्त्रार्थ में निर्णायक मंडन मिश्र की धर्मपत्नी भारती को बनाया गया था। कहते हैं कि जब निर्णय की घड़ी पास आई तो अचानक देवी भारती को कुछ समय काम से बाहर जाना पड़ गया, लेकिन जाते समय उन्होंने दोनों विद्वानों को पहनने के लिए एक-एक फूल की माला दी और कहा, ये दोनों मालाएं मेरी अनुपस्थिति में आपकी हार और जीत का फैसला करेंगी। कुछ समय के बाद देवी भारती वापस लौटीं और निर्णय लेते हुए शंकराचार्यजी को विजयी घोषित किया। देवी भारती के इस निर्णय से सभी चकित रह गए और पूछा कि आखिरकार उनकी अनुपस्थिति में बिना किसी पहलू को परखे हुए उन्होंने कैसे इस प्रकार का निर्णय ले लिया। इस पर देवी भारती ने स्पष्ट उत्तर देते हुए कहा, “जब भी किसी को चिंता होती है या क्रोध आता है तो वह उसे छिपा नहीं पाता। जब मैं वापस लौटी तो मैंने पाया कि मेरे पति के गले में डली हुई फूलों की माला उनके क्रोध के ताप से सूख चुकी है, जबकि शंकराचार्य जी की माला के फूल अब भी पहले की भांति ताजे हैं।“

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