संविधान के अनुसार, SC द्वारा दिया गया निर्णय अंतिम निर्णय होता है। हालाँकि अनुच्छेद 137 के तहत SC को अपने किसी भी निर्णय या आदेश की समीक्षा करने की शक्ति प्राप्त है। इसका कारण यह है कि किसी भी मामले में SC द्वारा दिया गया निर्णय भविष्य में सुनवाई के लिये आने वाले मामलों के संदर्भ में निश्चितता प्रदान करता है।
समीक्षा याचिका में SC के पास यह शक्ति होती है कि वह अपने पूर्व के निर्णयों में निहित ‘स्पष्टता का अभाव’ तथा ‘महत्त्वहीन आशय’ की गौण त्रुटियों की समीक्षा कर उनमें सुधार कर सकता है।
वर्ष 1975 के एक फैसले में, तत्कालीन न्यायमूर्ति कृष्ण/कृष्णा अय्यर ने कहा था कि एक समीक्षा याचिका को तभी स्वीकार किया जा सकता है जब न्यायालय द्वारा दिये गए किसी निर्णय में भयावह चूक या अस्पष्टता जैसी स्थिति उत्पन्न हुई हो।
SC द्वारा समीक्षाओं को स्वीकार करना दुर्लभ होता है, इसका जीवंत उदाहरण सबरीमाला और राफेल मामलों में देखने को मिलता है।
पिछले वर्ष SC ने केंद्र सरकार की याचिका पर मार्च 2018 के फैसले की समीक्षा करने की अनुमति दी थी, जिसने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अत्याचार अधिनियम को कमज़ोर कर दिया था
समीक्षा याचिका कौन दायर कर सकता है?
नागरिक प्रक्रिया संहिता और उच्चतम न्यायालय के नियमों के अनुसार, कोई भी व्यक्ति जो फैसले से असंतुष्ट है, समीक्षा याचिका दायर कर सकता है भले ही वह उक्त मामले में पक्षकार हो अथवा न हो।
नोट:
हालाँकि न्यायालय प्रत्येक समीक्षा याचिका पर विचार नही करता है। यह (न्यायालय) समीक्षा याचिका को तभी अनुमति देता है जब समीक्षा करने का कोई महत्त्वपूर्ण आधार दिखाता हो।
SC अपने पूर्व के फैसले पर अडिग रहने के लिये बाध्य नहीं है, सामुदायिक हितों और न्याय के हित में वह इससे हटकर भी फैसले कर सकता है।
संक्षेप में SC एक स्वयं सुधार संस्था है।
उदाहरण के तौर पर, केशवानंद भारती मामले (1973) में SC ने अपने पूर्व के फैसले गोलकनाथ मामले (1967) से हटकर फैसला दिया।
समीक्षा याचिका पर विचार करने के लिये न्यायालय द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रिया-
उच्चत्तम न्यायालय द्वारा निर्मित वर्ष 1996 के नियमों के अनुसार समीक्षा याचिका निर्णय की तारीख के 30 दिनों के भीतर दायर की जानी चाहिये।
कुछ परिस्थितियों में, न्यायालय समीक्षा याचिका दायर करने की देरी को माफ़ कर सकती है यदि याचिकाकर्ता देरी के उचित कारणों को अदालत के सम्मुख प्रदर्शित करे।
न्यायालय के नियमों के मुताबिक “वकीलों की मौखिक दलीलों के बिना याचिकाओं की समीक्षा की जाएगी।
समीक्षा याचिकाओं की सुनवाई उन न्यायधीशों द्वारा भी की जा सकती है जिन्होंने उन पर निर्णय दिया था।
यदि कोई न्यायाधीश सेवानिवृत्त या अनुपस्थित होता है तो वरिष्ठता को ध्यान में रखते हुए प्रतिस्थापन किया जा सकता है।
अपवाद: (जब न्यायालय मौखिक सुनवाई की अनुमति देता है)
वर्ष 2014 के एक मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि “मृत्युदंड” के सभी मामलों की समीक्षा याचिकाओं पर सुनवाई तीन न्यायाधीशों की बेंच द्वारा खुली अदालत में की जाएगी।
अयोध्या के फैसले की समीक्षा किस आधार पर की जानी है?
अभी तक केवल ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड ने कहा है कि वह निर्णय समीक्षा कराएगा। उत्तर प्रदेश सुन्नी सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड और अन्य याचिकाकर्त्ता इस मत पर विभाजित हैं।
हालाँकि अभी तक इस आधार का खुलासा नहीं किया गया है जिसके आधार पर समीक्षा याचिका दायर की जाएगी।
हालाँकि ध्वस्त बाबरी मस्ज़िद के बदले सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड को दी गई 5 एकड़ ज़मीन का मुद्दा महत्त्वपूर्ण है जिसे आधार बनाकर समीक्षा याचिका दायर की जा सकती है।
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड:
यह एक गैर-सरकारी संगठन है जिसे वर्ष 1973 में गठित किया गया था जो मुस्लिम पर्सनल लाॅ (शरीयत) की सुरक्षा और इसको प्रासंगिकता को बनाए रखने के लिये कार्य करता है।
यदि समीक्षा याचिका असफल हो जाये तो?
यदि SC द्वारा समीक्षा याचिका को खारिज कर दिया जाता है तो भी SC से दोबारा समीक्षा करने का अनुरोध किया जा सकता है। इस प्रकार की याचिका को आरोग्यकर/सुधारात्मक याचिका अर्थात् क्यूरेटिव पिटीशन कहा जाता है।
रूपा हुर्रा बनाम अशोक हुर्रा (2002) मामले में SC ने पहली बार सुधारात्मक याचिका शब्दावली का प्रयोग किया।
सुधारात्मक याचिका को SC में अनुच्छेद 142 के अंतर्गत दाखिल किया जा सकता है